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Showing posts with the label राजस्थान के लोक नाट्य

विदेशी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हो सकती है मेवाड़ की गवरी

विदेशी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हो सकती है मेवाड़ की गवरी- उदयपुर की गवरी का लोकनृत्य नाट्य विधा आज विश्व प्रसिद्ध हो गयी है। भील आदिवासियों की इस लोकनृत्य नाट्य परंपरा पर कई देशी-विदेशी अध्येता शोध भी कर चुके हैं तथा आजकल यह कला और इसकी  कथाओं का मंचन न केवल देशी लोगों में इसके प्रति नया आकर्षण पैदा कर रही है अपितु विदेशी सैलानियों में भी इसके प्रति आकर्षण बढ़ रहा है। ये विदेशी सैलानी न केवल इसके बारें में जान-समझ रहे है बल्कि आदिवासियों के साथ नाच का आनंद भी उठा रहे हैं। ऐसे समय में अगर राज्य सरकार योजनाबद्ध ढंग से इसे प्रोत्साहन करें तो यह लोककला मेवाड़ क्षेत्र में विदेशी सैलानियों के पर्यटन को बढ़ावा देने में अत्यंत प्रभावी सिद्ध हो सकती है। वैसे तो बरसात का मौसम मेवाड़ के अरावली की हरियाली में अभिवृद्धि कर देता है और झीले जलपूरित हो जाती है तथा नदी नालों में उफान ले आता है, जिस कारण बहुसंख्या में पर्यटक उदयपुर की ओर रुख करते हैं। ऐसे में पर्यटकों को ध्यान रखते हुए मेवाड़ के विभिन्न अंचलों में भादवा माह में आयोजित वाली गवरी का मंचन विधिवत रूप से योजनाबद्ध तरीके से कराया जा

राजस्थान में पारसी हिन्दी रंगमंच

बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ से देश में एक नई रंगमंचीय कला "पारसी थियेटर" का विकास हुआ। किंतु अधिकांश विद्वान यह भी मानते हैं कि इस शैली का विकास "शेक्सपीरियन थियेटर" से प्रभावित होकर इंग्लैड में हुआ था। यह रंगमंचीय विधा लगभग आधी सदी तक उत्तर भारत में जन चेतना के संचार का सशक्त माध्यम रही। पारसी रंगमंच कला के विशिष्ट तत्व निम्नांकित हैं - (1) अभिनेताओं द्वारा मुख-मुद्राओं तथा हावभाव का व्यापक प्रदर्शन। (2) नाटक का निश्चित कथात्मक स्वरूप। (3) बोलचाल की भाषा का समावेश तथा संवाद की एक खास शैली। पारसी थियेटर शैली ने तीसरे दशक में राजस्थान के रंगकर्मियों पर पूरा प्रभाव डाला। कहा जाता है कि सर्वप्रथम बरेली के जमादार साहब की थिएटर कंपनी राजस्थान आई थी। इसके पश्चात स्व. लक्ष्मणदास डाँगी ने जोधपुर में मारवाड़ नाटक संस्था की स्थापना की तथा जानकी स्वयंवर, हरीशचंद्र, भक्त पूरणमल जैसे कई नाटक किए। इस कंपनी ने जयपुर, लखनऊ और कानपुर में भी कई नाटक किए। महबूब हसन नामक व्यक्ति ने आगा हश्र कश्मीरी के लिखे पारसी शैली के अनेक नाटक जयपुर व अलवर मेँ मंचित किए। व्यापक प्रभाव को जम

ब्यावर का प्रसिद्ध बादशाह मेला और बादशाह की सवारी

यूँ तो राजस्थान के सवारी नाट्य में से एक बादशाह की सवारी कई शहरों में निकाली जाती है किंतु अजमेर से करीब 50 किलोमीटर दूर स्थित ब्यावर कस्बे में हर साल बड़े धूमधाम से निकाली जाने वाली हिंदुस्तान के एक दिन के बादशाह की सवारी अत्यंत प्रसिद्ध है। इसे बादशाह का मेला भी कहा जाता है। यह सवारी उत्सव बादशाह अकबर के जमाने से ही यहाँ होली के दूसरे दिन प्रतिवर्ष मनाया जाता है जिसमें बादशाह के रूप में अकबर के नौ रत्नों में से एक राजा टोडरमल की सवारी निकाली जाती है। कहा जाता है कि अकबर ने खुश होकर राजा टोडरमल को एक दिन की बादशाहत सौंपी थी। बादशाहत मिलने के बाद टोडरमल इतना खुश हुए कि वे हाथी पर सवार होकर प्रजा के बीच आए और हीरे-मोती के अलावा सोने व चांदी की अशर्फियां लुटाकर उन्होंने अपनी खुशी प्रकट की थी। उस समय तो टोडरमल ने अशर्फियां लुटाई थी, लेकिन अब अशर्फियों की जगह गुलाल लुटाई जाती है। बादशाह से मिली खर्ची यानी गुलाल को लोग अपने घरो में ले जाते हैं। लोगों का विश्वास है कि खर्ची उनके घर में बरकत लाती है। यही कारण है कि बादशाह से खर्ची पाने के लिए बड़ी संख्या में लोग इस सवारी में उमड़ते हैं। कहा

राजस्थान के लीला नाट्य

अवतारी महापुरुषों के स्वरूप धारण कर उनके जीवन चरित्र का अभिनय मंचन ही लीला नाट्य कहलाता है। इनमें राम और कृष्ण की जीवन से संबंधित लीलाओं के ही विभिन्न रूप मिलते हैं। 1. राम लीला - इसमें तुलसीकृत रामचरित मानस, कथा वाचक राधेश्याम की रामरामायण तथा केशव की रामचंद्रिका पर आधारित रामलीलाएं प्रमुखत: खेली जाती है। प्रमुख रामलीलाएं - >भरतपुर की रामलीला >कोटा के पाटूंदा गाँव की रामलीला - हाड़ौती के प्रभाव वाली। >कामां तहसील के जुरहरा की प्रसिद्ध रामलीला - जुरहरा की रामलीला में पंडित शोभाराम की लिखी लावणीयां बड़ी लोकप्रिय है। यह पूरा गाँव ही रामलीला की पावन स्थली है। अलवर के हिन्दी के प्राध्यापक डॉ जीवन सिंह के ठाकुर घराने द्वारा संरक्षित है। वो स्वयं भी रावण का बहुत अच्छा अभिनय करते हैं। >बिसाऊ की रामलीला - मूकाभिनय और मुखौटों के लिए प्रसिद्ध। राम, चारों भाई व अन्य पात्र मुखौटे पहनते हैं। >अटरू की धनुषलीला - इसमें धनुष राम द्वारा नहीं तोड़ा जाता है बल्कि विवाह योग्य युवकों द्वारा तोड़ा जाता है। मान्यता है कि इसके पश्चात इनका विवाह शीघ्र हो जाता है। >माँगरोल की ढ

राजस्थान में 'तमाशा' लोक नाट्य

राजस्थान में तमाशा का प्रारंभ- तमाशा मूलतः महाराष्ट्र की नाट्य विधा है। राजस्थान के जयपुर में भी तमाशे की गौरवशाली परम्परा है। लगभग 300 वर्ष पूर्व यह लोकनाट्य महाराजा प्रतापसिंह के काल में प्रारंभ हुआ। इसके खिलाड़ी तमाशे को लेकर महाराष्ट्र से ही आए थे। इसे लाने व पोषित करने वाला महाराष्ट्र का भट्ट परिवार है। इस परिवार के लोगों ने ही तमाशा को जयपुर में थियेटर के रूप में शुरू किया तथा इसमें जयपुर ख्याल और ध्रुपद गायकी का समावेश किया। पं. बंशीधर भट्ट ने इस नाट्य में बहुत नाम कमाया, उन्हें राजस्थान में तमाशा थियेटर का जनक माना जाता है। इन्हें जयपुर राजघराने का भी संरक्षण प्राप्त था। यह परिवार आज भी विद्यमान हैं और परम्परागत विधि से आज भी तमाशा का लोक मंचन करता है।  उस्ताद परम्परा इस परिवार में उस्ताद परम्परा फूलजी भट्ट द्वारा स्थापित हुई। फूलजी भट्ट अपनी ध्रुपद गायकी के लिए प्रसिद्ध थे। आजकल गोपीकृष्ण भट्ट जो 'गोपीजी' के नाम से भी जाने जाते हैं, इस परम्परा के उस्ताद है। वे आज भी तमाशा का प्रतिवर्ष आयोजन करते हैं। इस परिवार में वासुदेव भट्ट रंगमंच व राजस्थानी और हिन्दी फ

राजस्थान में लोक नाट्य - 'स्वांग' एवं 'बहूरूपिया'

स्वांग- राजस्थान के लोकनाट्य रूपों में एक परम्परा 'स्वांग' की भी है। किसी रूप को अपने में आरोपित कर उसे प्रस्तुत करना ही स्वांग है। स्वांग में किसी रूप की प्रतिछाया रहती है। इस दृष्टि से स्वांग का अर्थ किसी विशेष, ऐतिहासिक, पौराणिक चरित्र या लोक समाज में प्रसिद्ध चरित्र या देवी देवता की नकल में मेकअप करना, उसी अनुसार वेशभूषा पहनना एवं उसी के अनुरूप अभिनय करना है। ये स्वांग असल की नकल होते हुए भी इतने जीवंत होते हैं कि ये असल होने का भ्रम देते हैं। कुछ जातियों और जनजाति के लोग तो स्वांग करने का पेशा अपनाए हुए हैं। यह एक ऐसी विधा है जिसे एक ही चरित्र सम्पन्न करता है। परन्तु आधुनिक प्रचार माध्यमों के विकसित हो जाने से यह लोकनाट्य रूप शहर से दूर गाँव की धरोहर रह गया है व इसे केवल शादियों और त्यौहार के अवसर पर ही दिखलाया जाता है। स्वांग के कुछ उदाहरण निम्नलिखित है - 1. होली के अवसर पर पूरे शेखावटी क्षेत्र में गींदड़ नाची जाती है जिसमें भी विविध स्वांग रचे जाते हैं। 2. होली के दूसरे दिन होली खेलने के साथ ही कई शहरों में लोग स्वांग धारण कर सवारी भी निकालते हैं जैसे उदयपुर

राजस्थान में नौटंकी लोक नाट्य

नौटंकी का शाब्दिक अर्थ है 'नाटक में अभिनय करना। जयशंकर प्रसाद नौटंकी को नाटक का अपभ्रंश मानते हैं। उनके अनुसार नौटंकी प्राचीन राग काव्य या गीतिकाव्य की ही स्मृति है। रामबाबू सक्सेना के अनुसार नौटंकी लोकगीतों और उर्दू कविता के मिश्रण से पनपी है। कालिका प्रसाद दीक्षित कुसुमाकर कहते हैं कि नौटंकी का जन्म संभवतः ग्यारहवीं सदी में हुआ और अमीर खुसरो द्वारा किए गए प्रयत्नों से इसे आगे बढ़ने का मौका मिला। नौटंकी का जन्म उत्तर प्रदेश में हुआ माना जाता है। राजस्थान में नौटंकी करौली, भरतपुर, धौलपुर, अलवर, गंगापुर सिटी तथा सवाई माधोपुर आदि क्षेत्रों में मंचित की जाती है। भरतपुर की लोक मंचीय कलाओं में नौटंकी का ग्रामीण जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रहा है। भरतपुर में इसे हाथरस शैली में अधिक प्रस्तुत किया जाता है। नौटंकी पुरानी ख्याल शैली है जिसकी नाटकीयता एवं संवाद शैली संगीतात्मक है। भरतपुर, डीग तथा धौलपुर आदि में स्वर्णकार भूरीलाल, ठा. कल्याण सिंह, ठा. बद्रीसिंह, नत्थाराम, बाबूलाल हकीम आदि कई मण्डलियों द्वारा नौटंकी का खेल दिखाया जाता रहा है। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है- (i) इस नाट्य मे

राजस्थान के लोकनाट्य - बीकानेर व जैसलमेर की रम्मते

'  रम्मत ' खेल को ही कहते हैं। ऐतिहासिक एवं पौराणिक आख्यानों पर रचित काव्य रचनाओं का मंचीय अभिनय की बीकानेर - जैसलमेर शैली को रम्मत के नाम से अभिहित किया गया है। बीकानेर की रम्मतों का अपना अलग ही रंग है। बीकानेर के अलावा रम्मतें पोकरण, फलौदी, जैसलमेर और आस-पड़ोस के क्षेत्र में खेली जाती हैं। ये कुचामन, चिड़ावा और शेखावटी के ख्यालों से भिन्न होती है। 100 वर्ष पूर्व बीकानेर क्षेत्र में होली एवं सावन आदि के अवसर पर होने वाली लोक काव्य प्रतियोगिताओं से ही इनका उद्भव हुआ है। कुछ लोक कवियों ने राजस्थान के सुविख्यात ऐतिहासिक एवं धार्मिक लोक - नायकों एवं महापुरुषों पर काव्य रचनाएँ की। इन्हीं रचनाओं को रंगमंच पर मंचित कर दिया गया। इन रम्मतों के रचयिताओं के नाम इस प्रकार हैं - (i) मनीराम व्यास (ii) सूआ महाराज (iii) फागू महाराज (iv) तुलसीराम (v) तेज कवि (जैसलमेरी) यहाँ यह उल्लेख कर देना आवश्यक है कि तेज कवि जैसलमेरी रंगमंच के क्रांतिकारी कार्यकर्ता थे। उन्होंने रंगमंच को क्रांतिकारी नेतृत्व प्रदान किया। उन्होंने अपनी रम्मत का अखाड़ा 'श्रीकृष्ण कम्पनी' के नाम से

राजस्थान के लोकनाट्य - "तुर्रा कलंगी" ख्याल

इसका प्रारंभिक रूप दो दलों का जमीन पर बैठ कर किसी विषय पर गायकीबद्ध शास्त्रार्थ करना रहा था। अतः इस प्रकार के ख्याल 'बैठकी ख्याल' या 'बैठकी दंगल' भी कहलाए। इनमें मुकाबला होने के कारण ही इन्हें दंगल कहा जाता है। इसमें भाग लेने वाले दल को अखाड़ा और अखाड़े के मुखिया को उस्ताद कहा जाता है। लोक नाट्यों में "तुर्रा - कलंगी" ख्याल कम - से -कम चार सौ से पाँच सौ वर्ष पुराना है। दो पीर संतों शाहअली और तुकनगीर ने "तुर्रा - कलंगी" ख्यालों का प्रवर्तन किया। ये वस्तुतः एक नहीं अपितु मेवाड़ की ख्याल परंपरा के दो भाग है। कहा जाता है कि एक बार मध्यप्रदेश के चंदेरी गाँव के ठाकुर ने दंगलबाज संत तुकनगीर और फकीर शाहअली को न्यौता देकर दंगल कराया तथा तुकनगीर को तुर्रा व शाह अली को कलंगी का सम्मान दिया। तब से दो अखाड़े बने जो तुर्रा और कलंगी के नाम से प्रसिद्ध हुए। तुर्रा व कलंगी पगड़ी पर सजाए या बाँधे जाने वाले दो आभूषण हैं। तुकनगीर "तुर्रा" के पक्षकार थे तथा शाह अली "कलंगी" के। तुर्रा को शिव और कलंगी को पार्वती का प्रतीक माना जाता है। इन दोनों खिलाड़ियों न

राजस्थान के लोक नाट्य - "शेखावटी ख्याल"

शेखावटी ख्याल - इस लोक नाट्य शैली की प्रमुख विशेषताएँ- (i) अच्छा पद संचालन (ii) पूर्ण सम्प्रेषित होने वाली शैली, भाषा व मुद्रा में गीत गायन। शब्दों से अधिक स्वर महत्वपूर्ण छटा लिए हुए। (iii) वाद्यों की उचित संगत, जिनमें हारमोनियम, सारंगी, शहनाई, बाँसुरी, नगाड़ा तथा ढोलक प्रमुख हैं। इस शैली के मुख्य खिलाड़ी चिड़ावा के नानूराम थे। उनका स्वर्गवास 60 वर्ष से अधिक समय हो चुका है, लेकिन वे अपने पीछे स्वचरित ख्यालों की एक धरोहर छोड़ गए हैं। उनमें से कुछ निम्नलिखित है- (i) हीर रांझा (ii) राजा हरिश्चन्द्र (iii) भर्तृहरि (iv) जयदेव कलाली (v) ढोला मरवण (vi) आल्हादेव। नानूराम चिड़ावा निवासी मुसलमान थे। किन्तु सभी जाति व संप्रदाय के लोग उन्हें बड़े सम्मान के उनकी कला के लिए आज भी सभी याद करते हैं। उनके योग्यतम शिष्यों में एक दूलिया राणा थे जिनके परिवार के लोग आज भी इन ख्याल का अखाड़ा लगाते हैं तथा इनमें होने वाले व्यय को वहन करते हैं। दूलिया राणा स्री चरित्रों को बड़ी कुशलता से निभाते थे। दूलिया राणा की मृत्यु के बाद उनके पुत्र सोहन लाल व पोते बनारसी आज भी साल में आठ महीनों तक इन ख्यालो

राजस्थान के लोक नाट्य - " जयपुरी ख्याल"

जयपुरी ख्याल - अन्य ख्यालों से अलग जयपुरी ख्याल की कुछ अपनी विशेषताएँ है जो इस प्रकार है- (i) स्री पात्रों की भूमिका स्रियाँ निभाती हैं। (ii) यह शैली रुढ़ नहीं है बल्कि मुक्त तथा लचीली है। यह कलाकारों को नए प्रयोगों की पर्याप्त संभावनाएँ प्रदान करती है (iii) इसमें कविता, संगीत, नृत्य तथा गान व अभिनय का सुंदर समानुपातिक समावेश है। गुणवान कलाकार जयपुरी ख्यालों में हिस्सा लिया करते थे। इस शैली के कुछ लोकप्रिय ख्याल निम्नलिखित है - (१) जोगी-जोगन (२) कान-गूजरी (३) मियाँ-बीबू (४) पठान (५) रसीली तम्बोलन। सन् 1981 में "ख्याल भारमली" के कथ्य पर नई शैली में एक नाटक लिखा गया। इसके लेखक राजस्थान के प्रयोगवादी नाटककार श्री हमीदुल्ला हैं। यह नाटक राजस्थान के अलावा हैदराबाद, बैंगलोर, चैन्नई, मुम्बई, दिल्ली और लखनऊ आदि स्थानों पर भी खेला गया। इसके बहुरंगी लोक वातावरण के कारण इसे सभी स्थानों पर सराहा गया तथा कुछ प्रांतीय भाषाओं में इसका अनुवाद भी हुआ।

राजस्थान के लोक नाट्य - "कुचामनी ख्याल"

कुचामनी ख्याल - इसका उद्गम नागौर जिले का कुचामन शहर है। लोक जीवन के विख्यात लोक नाट्यकार 'लच्छीराम' द्वारा इसका प्रवर्तन किया गया। उन्होंने प्रचलित ख्याल परम्परा में अपनी शैली का समावेश किया। इस शैली की विशेषताएँ निम्नलिखित है- (i) इसका रूप गीत-नाट्य या ऑपेरा जैसा होता है। (ii) इसमें लोकगीतों की प्रधानता होती है। (iii) लय के अनुसार ही नृत्य में ताल होती है। आलापचारी की समाप्ति पर पात्र अपना कमाल दिखाते हैं। (iv) इसे खुले मंच (ओपन एयर) पर प्रस्तुत किया जाता है। मंच पर पर्दे का प्रयोग नहीं होता है। मंच के लिए तख्त का प्रयोग किया जाता है। (v) इसमें पुरुष ही स्त्री चरित्र का अभिनय करते हैं। (vi) इस ख्याल में संगत के लिए वादक ढोल, शहनाई आदि प्रयुक्त करते हैं। (vii) इसमें प्रायः नर्तक ही गाने गाते हैं लेकिन जब नर्तक की साँस उखड़ जाती है तो मंच पर बैठे अन्य सहयोगी गायक गायन जारी रखते हैं। गीत बहुत ऊँचे स्वर में गाये जाते हैं। (viii) इसमें सरल भाषा एवं सीधी बोधगम्य लोकप्रिय धुनों का प्रयोग होता है और अभिनय की कुछ सूक्ष्म भावभिव्यक्तियाँ होती है। (ix) इसमें सामाजिक स्थितियों

राजस्थान के 'ख्याल' लोकनाट्य

ख्याल : एक परिचय- ख्याल राजस्थान के लोक नाट्य की सबसे लोकप्रिय विद्या है। इसके 18 वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही राजस्थान में लोक नाट्यों के नियमित रुप से सम्मिलित होने के प्रमाण मिलते हैं। ख्याल शब्द खेल शब्द का अपभ्रंश है। यहां खेल से तात्पर्य नाटक खेलने से है। ख्याल के अभिनेता को 'खिलाड़ी' कहते हैं। ख्यालों की विषय-वस्तु पौराणिक या किसी पुराख्यान या ऐतिहासिक पुरुषों के वीराख्यान या लोक देवता व लोक देवियों के कल्याणकारी गाथा से जुड़ी होती है। भौगोलिक अन्तर के कारण इन ख्यालों ने भी परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग रुप ग्रहण कर लिए। इन ख्यालों के खास प्रकार निम्नलिखित है - कुचामनी ख्याल शेखावटी ख्याल जयपुरी ख्याल तुर्रा - कलंगी ख्याल माँची ख्याल हाथरसी ख्याल। ये सभी ख्याल बोलियों में ही अलग नहीं है, बल्कि इनमें शैलीगत भिन्नता भी पाई जाती है। जहाँ कुछ ख्यालों में संगीत की महत्ता अधिक है तो दूसरों में नाटक, नृत्य और गीतों सभी की प्रधानता है। इनमें गीत प्राय: लोकगीतों पर आधारित है या शास्रीय संगीत पर। लोकगीतों एवं शास्रीय संगीत का भेद ख्याल को गाने वाले विशेष नाट्यकार पर ही आध

राजस्थान के लोक नाट्य

राजस्थान में लोक नाट्य जन जीवन को सदैव आह्लादित करते रहे हैं। गीतों व नृत्यों की प्रधानता लिए इन लोक नाट्य में दर्शकों एवं अभिनेता के बीच दूरी प्रायः नहीं होती है। अधिकतर इनमें वेशभूषा प्रतीकात्मक ही होती है। ये लोकनाट्य अधिकतर ऐतिहासिक व पौराणिक आख्यानों पर आधारित होते हैं लेकिन आजकल इनमें समसामयिक राजनीति और शासन व्यवस्था को भी अभिव्यक्त किया जाने लगा है। वैसे तो इनमें पुरुष व स्त्री दोनों ही भाग लेते हैं लेकिन कई बार पुरुष ही स्त्री की वेशभूषा में अभिनय करते हैं। इन लोक नाट्य में राजस्थान की लोक संस्कृति की झलक मिलती है किन्तु सीमावर्ती जिलों के लोक नाट्य में पड़ोसी राज्य की संस्कृति का प्रभाव भी देखा जाता है जैसे अलवर और भरतपुर के लोकनाट्य में हरियाणा व उत्तर प्रदेश की लोक संस्कृति के मिले जुले रूप के दर्शन होते हैं तो धौलपुर एवं सवाईमाधोपुर के लोकनाट्य में ब्रज संस्कृति देखी जा सकती है। वैसे तो इन लोक नाट्य में जाति विशेष की बाध्यता नहीं है लेकिन बहुतायत में कुछ विशेष जातियों जैसे नट, भाट, भाँड आदि जाति के लोगों की होती है। यहाँ जनजाति यथा- भील, गरासिया, मीणा, सहरिया, बंजारे आदि के

गवरी - राजस्थान का एक लोक नृत्यानुष्ठान -- Gavri - a Folk Dance Ritual of Rajasthan

मेरु नाट्यम है गवरी- राजस्थान की समृद्ध लोक परम्परा में कई लोक नृत्य एवं लोक नाट्य प्रचलित है। इन सबसे अनूठा है ' गवरी ' नामक ' लोक नृत्य-नाटिका ' । 'गवरी ' उन भीलों का एक मेरु नाट्यम हैं। यह एक नृत्य नाटक है, जो कि अनुकरण (नक़ल mime) और वार्तालाप को जोड़ता है, और ''गवरी नृत्य या राई नृत्य'' के नाम से जाना जाता है। गवरी में अभिनीत किये जाने वाले दृश्यों को 'खेल', ' भाव' या सांग कहा जाता है। यह भील जनजाति का एक ऐसा नाट्य-नृत्यानुष्ठान है, जो सैकड़ों बरसों से प्रतिवर्ष श्रावण पूर्णिमा के एक दिन पश्चात प्रारंभ हो कर सवा माह तक आयोजित होता है। इसका आयोजन मुख्यत: उदयपुर और राजसमंद जिले में होता है। इसका कारण यह है कि इस खेल का उद्भव स्थल उदयपुर माना जाता है तथा आदिवासी भील जनजाति इस जिले में बहुतायत से पाई जाती है। गवरी का कथानक भगवान शिवजी के इर्द-गिर्द होता है, जो इसके केंद्रीय चरित्र है, तथा इस नृत्य-नाटिका में उनका चरित्र बहुत ही आश्चर्यजनक रूप में चित्रित होता है। गवरी में जो गाथाएं सुनने को मिलती हैं ,